सत्रहवाँ सूक्त

 

आत्म-विस्तार और चरम अभीप्साका सूक्त

 

    [ एक अवस्था आती है जिसमें मनुष्य बुद्धिकी निरी सूक्ष्मता और कुशाग्रताके परे चले जाता हैं और आत्माकी समृद्धि तथा बहुविध विशालता तक पहुँच जाता है । यद्यपि तब उसके पास अपनी सत्ताका विशाल विधान होता है जो हमारा समुचित आधार है, तथापि उसे अपने नेतृत्वके लिये एक ऐसी शक्तिकी आवश्यकता होती है जो उसकी शक्तिसे बड़ी है; क्योंकि आत्म-शक्ति और ज्ञानकी विशालता एवं अनेकविधता ही पर्याप्त नहीं, विचार, शब्द और क्रियामें दिव्य सत्यका होना भी नितांत आवश्यक है । वस्तुत: हमें विशालतायुक्त मानसिक सत्तासे परे जाकर मनोतीत अवस्थाका परम आनन्द प्राप्त करना है । अग्नि प्रकाश व बल, शब्द व सत्यप्रेरणा और सर्वग्राही ज्ञान व सर्वसाधक शक्तिसे सम्पन्न है । वह अपने रथमें दिव्य ऐश्वर्य-संपदा लाये और हमें आनन्दपूर्ण स्थिति और परम कल्याणकी ओर ले जाय । ]

आ यज्ञैर्देव मर्त्य इत्था तव्यांसमूतये ।

अग्निं कृते स्वध्वरे पूरुरीळीतावसे ।।

 

(देव) हे देव ! (मर्त्य ईळीत) मैं मर्त्य हूँ जो तुझे पुकारता हूँ, क्योंकि (तव्यांसम्) तेरी शक्ति मेरीसे बड़ी है और (यज्ञै: इत्था) अपनी क्रियाओमे सत्यपूर्ण है । (पूरु:) अनेकविध आत्मशक्तिवाला मनुष्य जब (सु-अध्वरे कृते) अपने यज्ञको पूर्ण बना लेता है तब वह (अवसे) अपनी वृद्धिके लिये (अग्निम् ईळीत) संकल्पाग्निकी स्तुति करे ।

अन्य हि स्वयशस्तर आसा विधर्मन्मन्यसे ।

त नाकं चित्रशोचिष मन्द्रं परो मनीषया ।।

 

हे मानव ! (विधर्मन्) तू जिसने अपनी सत्ताका विशाल विधान1

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1. सत्तामें चेतना और शक्तिकी विशालतर क्रिया जिसके द्वारा सामान्य

   मन, प्राण और शारीरिक सत्ताकी कठोर सीमाएँ टूट जाती हैं और

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विजित कर लिया है (अस्य आसा) इस अग्निके मुखके द्वारा (स्वयशस्तर:) उपलब्धिके लिये अधिक आत्मशक्तिशाली हो जायगा, (तं चित्र- शोचिषं मन्द्रं नाकं) तू इसकी अतिसमृद्ध ज्वालाओंवाले उस आनन्दोल्लासपूर्ण स्वर्ग1को (मन्यसे) मनोमय रूप दे देगा जो (मनीषया पर:) मनके विचारसे परे- है ।

2अस्य वासा उ अर्चिषा य? आयुक्त तुजा गिरा ।

दिवो न यस्य रेतसा बृहच्छोचन्त्यर्चय । ।

 

(य:) जिस अग्निने (अस्य वै आसा उ अर्चिषा) अपनी ज्वालाके मुख और दीप्तिके द्वारा अपने-आपको ( तुजा गिरा) प्रेरणायुक्त शक्ति और शब्दके साथ (आ अयुक्त) दृढ़तासे जोड़ लिया है, (दिव: रेतसा न बृहत्) मानो द्युलोकके वीर्यके कारण विशाल उस अग्निकी (अर्चय: शोचन्ति) किरणें पवित्रताके साथ चमक रही हैं, उसकी किरणोंकी पवित्रता अपनी प्रखर दीप्ति प्रसारित कर रही है ।

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 मनुष्य पूर्ण आंतरिक जीवनको अनुभव करनेके योग्य बन जाता है तथा

 अपनी सत्ता एवं वैश्व सत्ताके समस्त स्तरोंके साथ संपर्क रखनेके लिए

 अपनेको खोलनेमें समर्थ हो जाता है ।

1. आनंदकी अवस्था जिसका आधार है 'स्वर्', अर्थात् सत्ताका अतिमानसिक

   स्तर ।

2. 'अस्य वासा उ अर्चिषा'-इस चरणका पदपाठ श्रीअरविन्दने

   'अस्य । वै । आसा । ऊम् इति । अर्चिषा ।' ऐसा स्वीकार

   किया हैं । सायणने 'आसा'की जगह 'असौ' पद माना है ।

 

दूसरे मन्त्रमें 'अस्य हि स्वयशस्तर आसा विधर्मन् मन्यसे'में 'आसा' पदके प्रयोगसे तीसरेमें भीं उसी पदकी सम्भावना पुष्ट होतोई है ।

 

इस पदके परिवर्तनसे श्रीअरविन्दकृत मन्त्रार्थमें कितना अर्थगौरव आ गया हैं यह विज्ञ पाठकगण सायण और श्रीअरविन्द-कृत मन्त्रार्थोंकी तुलनासे स्वयं देख सकते हैं ।

 

''अस्य वै खलु अग्ने: अर्चिषा प्रभया असौ आदित्य: अर्चिष्मान् भवति ।'' (निश्चय ही, इस अग्निकी प्रभासे वह सूर्य दीप्यमान होता है) -सायणका यह कथन कर्मकाण्डकी अग्निमें कहाँतक संगत है यह पाठक स्वयं ही समझ सकते हैं । स्थूल भौतिक अग्निके लिए ऐसा कहना असंगत ही होगा । -अनुवादक

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आत्म-विस्तार और चरम अभीप्साका सूक्त

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अस्य क्रत्वा विचेतसो दस्मस्य वसु रथ आ ।

अधा विश्वासु हव्योदुग्निर्विक्षु प्र शस्यते ।।

 

(अस्य क्रत्वा) वह अपने क्रिया-कलापकी शक्ति द्वारा (विचेतस:) सबका आलिंगन करनेवाले ज्ञान और (दस्मस्य) सब कुछ सिद्ध करनेवाली शक्तिसे सम्पन्न है । उसका (रथ:) रथ (वसु) दिव्य ऐश्वर्य-संपदाको (आ [ वहति ] ) धारण करता है । (अध) इसलिये (विश्वासु विक्षु) सब प्राणियोंमें (अग्नि:) वह अग्नि ही एक ऐसा देव है जो (प्र शस्यते) प्रकट करने योग्य हैं,  [ वह एक ऐसा सहायक है] (हव्य:) जिसे मनुष्य पुकारते हैं ।

नू न इद्धि वार्यमासा सचन्त सूरय: ।

ऊर्जो नपादभिष्टये पाहि शग्धि स्वस्तय उतैधि पृत्सु नो वृधे ।।

 

(नु) अभी, (नः इत् हि) हमारे लिये भी (सूरय:) ज्ञान-प्रदीप्त स्वामी (आसा) ज्वालाके मुखसे (वार्यम्) हमारे परमकल्याणके लिये (सचन्त) दृढ़तया संलग्न हों ।1 (ऊर्जो नपात्) हे शक्तिके पुत्र ! (पाहि) हमारी रक्षा कर (अभिष्टये) ताकि हम अंदर प्रवेश कर सकें,2 (स्वस्तये शग्धि) अपनी आनन्दमय स्थिति पानेके लिये शक्तिशाली हो सकें । (उत) और (नः पृत्सु) हमारे युद्धोंमें (एधि) तू हमारे साथ अभियान कर ताकि हम (वूधे) विकसित हों ।

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 1. हमारे अंदर स्थित ज्योतिर्मय देवोंको चाहिये कि वे हमारी चेतनाको  

   उस प्रकाश एवं सत्यके साथ दृढ़तासे जोड़े रखें जो सकल्पाग्निकी

   क्रियाओंसे लाया जाता है ताकि हम यथार्थ गति और उसके दिव्य आनंदसे

   च्युत न हो जायँ ।

 2. अथवा, हम अन्तर्मख गति कर सकें । अभि + इष् ( गतौ दिवा. प.) +

   क्तिन्+ ङे=अभिष्टये, सवर्णदीधमंस्थाने पररूपं छान्दसम् । -अनुवादक

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